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२९. जैनमालपोषक * . ..... .. :निजरा भावना। ... ... .. निजकालपाय विधि झरना तासौं निनकान न सरना । सर्प कर जो कर्म खपावै । सोई शिवसुख दरमावै ॥ ११॥ ___ कर्मोकी स्थिति पूरी करके जो कर्मोका झड़ना है ऐसी निर्जरासे कोई कार्य नहिं सरता किंतु तप.करके कर्माको सपादे वही निर्जरा मोक्षके सुख दिखाती है ॥११॥ .:: 2 . लोकभावना | . :. :किन ह.न करयो न धरै को । पट द्रव्यमयो न हरै को। सो लोकमाहि विन सपता । दुख सहे जीव नित भ्रमता ॥
इस लोकको न तो किसीने बनाया और न कोई इसे धारण किये हुये है। यह तौ जीवं पुद्गल धर्म अधर्म काल और प्राकाश इन कह द्रव्योंसे भरा हुवा अनादि कालसे विद्यमान है इसका कोई नाश नहीं कर सकता । इस लोकमें यह जीव विना समता के नित्य भ्रमण करताना दुःख भोगता रहता है ॥ १३ ॥
बोधदुर्लम भावना। अंतिम श्रीवकलोंकी हद । पायो अनंत विरियां 'द ॥. पर सम्यकज्ञान न लाध्यो । दुर्लभ निजमें मुनि साध्यो ॥१३ :: इस जीवने नौ ग्रीवक तक जाजाकर अहमिंद्र पद अनंतबार पाया परंतु सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहिं हुमा। ऐसे दुर्लभ, सम्यगान को मुनियोंने ही अपने आपमें साधा है॥ १३॥ . . . . .