________________
चतुर्थ भाग ।
२७ तो मुनिने धीरे धीरे देवागमस्तोत्रको फिरसे पढ़ा । आद्योपांत सुननेसे पात्रकेशरीको वह स्तोत्र याद हो गया। सो वे इस स्तोत्रका अर्थ विचारने लगे विचारते २ उनको दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयोपशम होनेसे विश्वास (श्रद्धान) हो गया कि-जिनद्रभगवानने जो जीवादि पदार्थीका स्वरूप कहा है वही सत्य है। अन्य सब मिथ्या है। इसके बाद फिर वे अपने घर पर जाकर वस्तुका स्वरूप भले प्रकार विचारने लगे। सय दिन उनका इसी तत्त्व विचारमें वीता, रातको भी उनका यही हाल रहा। उन्हें निश्चय हो गया कि, सब पदार्य ठीक समझे गये हैं। इसी मतसे ही आत्माका कल्याण हो सकता है। परंतु एक संदेह रह गया कि-जिनमतमें अनुमान प्रमाणका लक्षण फहा नहीं गया। सो क्यों ? यह संदेह दूर हो जाय तो क्स कलसे.जैनधर्मानुयायी ही वन जाऊंगा। इसी बीच में पद्मावती देवीका श्रासन कंपायमान हुपा और वह देवी तुरंत ही वहां आई और कहने लगी कि-आपको जैनधर्मके पदार्थमें जो संदेह हो गया है उसकी 'चिंता नहीं करें। आप प्रातःकाल पार्श्वनाथ भगवान के दर्शनार्य जावेंगे तो आपका सव संदेह दूर हो जायगा और वहींपर आपको अनुमान प्रमाणका स्वरूप मिल जाएगा। इसप्रकार कर कर देवी चली गई और मंदिरमें जाकर पार्श्वमायके फनके ऊपर एक श्लोक लिख कर वह अपने स्थान चली गई यह श्लोक यह था।