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जैनवालवोधकअन्यथानुपपन्नत्वं यत्र यत्र त्रयेण किं। : नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं ॥१॥ - प्रातःकालही जव पात्रकेशरी मंदिर में प्राकर पार्श्वनाथ भगवानकी प्रतिमाका दर्शन करने लगे तो फणके ऊपर लिखा श्लोक देखकर बड़े प्रसन्न हुये सवं संदेह दूर हो गया। और जैनधर्मके सच्चे श्रद्धानी हो गये एवं घरपर अन्य सव छोडकर एकमात्र जैनधर्मके ग्रन्थोंपर ही विचार करने लगे। ऐसा देखः कर अन्य सव विद्वान कहने लगे कि यह क्या बात है? आज. कल न्याय, वेदांत, मीमांसा आदि ग्रंथोंको छोडकर एकमात्र जैनधर्मके ग्रंथों को ही क्यों देख रहे हैं ? तव पात्रकेशरीने कहा कि, आपलोगोंको अपने वेदोंपर ही विश्वास है। इसलिये भापकी. दृष्टि सत्यकी तरफ ही नहीं जाती। परंतु मेरा विश्वास आपसे उलटा है । मुझे वेदोंपर विश्वास न होकर जैनधर्मपर विश्वास है । जैनधर्म ही मुझे संसारमें सर्वोत्कृष्ट दीखता है। मैं श्राप लोगोंको भी आग्रहसे कहता हूं कि-प्राप विद्वान हैं सत्य झूठकी परीक्षा कर सकते हैं । इसलिये जो मिथ्या हो उसे छोड़कर । सत्यको ग्रहण कीजिये । ऐसा धर्म एकमात्र जिनधर्म ही है और ग्रहण करने योग्य है।
पात्रकेशरीके इस उत्तरसे ब्राह्मणविद्वानों को संतोष नहीं हुआ। वे इसके विपरीत शास्त्रार्थ करनेको तैयार हो गये और राजाके पास जाकर आपसमें शास्त्रार्थ करनेकी प्रार्थना की। राजाने पात्रकेशरीको राजसभामें बुलाया और शास्त्रार्थ कराया पात्रकेशरीने समस्त ब्राह्मणविद्वानोंको पराजित करके संसार.