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________________ E जैनवालवोधक • १८ । आत्माके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों गुणोंकी पूर्ण एकता ही संवर और निर्जरा होनेका उपाय है।. -:*: @ঃ*: ५२. पात्रकेशरी वा विद्यानंद | ད་ ནས/ " : ; भारतवर्ष में मगध नामका एक देश है। उसके अंतर्गत एक प्रहिछत्र नामका सुंदर शहर था। उस नगरका राजा प्रवनिपाल वडा गुणी था समस्त राजविद्या आदि विद्यार्थीका पंडित था । अपने राज्यका पालन अच्छी रीतिके साथ करता था । उस नगर में पांच सौ विद्वान ब्राह्मण रहते थे जो कि राजसभामें या राज्यकार्यमें बड़ी सहायता दिया करते थे उन सबमें प्रधान समस्त' विद्याओंका पारगामी पात्रकेशरी नामका दिग्गज वैदिक विद्वान् था । एक दिनकी बात है कि वह विद्वान उन पांचसौ शिष्यों'सहित राजाके यहां जाता था । मार्ग में एक पार्श्वनाथ भगवानका मंदिर था उसे देखनेको गया । वहां पर चारित्रभूषण नामके एक मुनि भगवान के सम्मुख देवागमस्तोत्र पढ़ रहे थे सो पात्रकेशरी विद्वानने शेषका भाग सुना जब मुनिमहारज सब पढ़ चुके तब वह मुनिसे बोला कि हे मुने ! तुम्हें इसका अर्थ भी प्राता है कि नहीं ? मुनिने कहा कि मुझे अर्थ नहीं आता । पात्रकेशरीने कहा कि इसे फिर से प्रारंभ से अंत तक पढ़ जावो - ;
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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