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________________ चतुर्थ भाग । २६५ चारों पृथिवियोंमें कर्मभूमि कीसी रचना है। 'लवणसमुद्र और कालोदधि समुद्र ६६ अन्तद्वीप है जिनमें कुभोग भूमि कीसी रचना है। वहां मनुष्यही रहते हैं । उनमें मनुष्योंकी भाकृतिय नाना प्रकारको कुत्सित है । १३ | संसारमें समस्त प्राणी सुखको चाहते हैं और होरात्र सुखका ही उपाय करते हैं परंतु सुखकी प्राप्ति नहि होती इसका कारण यह है कि संसारी जीव असली सुखका स्वरूप और उसकी प्राप्तिका उपाय न तो जानते हैं और न उसका साधन करते हैं इस लिये असली सुखको भी प्राप्त नहि होते । १४ । आल्हाद स्वरूप जीवके अनुजीवी गुणको प्रसजी सुख कहते हैं । यही जीवका खास स्वभाव ( धर्म ) है । परंतु संसा री जीवोंने भ्रमवश साता वेदनीय कर्मके उदय जनित उस मसलीसुखकी वैभाविक परिणतिरूप साता परिणाम को ही सुख मान रक्खा है । कर्मोंने उस असली मुखको घात रक्खा है इस कारण असली सुख नहि मिलता। संसारी जीवको असनीसुख मोक्ष होने पर ही मिल सकता है। १५ । आत्मासे समस्त कर्मके विप्रमोक्ष ( अत्यंत वियोग ) होनेको मोक्ष कहते हैं । मोक्ष प्राप्तिका उपाय संबर और निर्जरा है । १६ | स्वके निरोधको संवर कहते हैं । अर्थात् अनागत (नवीन) कर्मोंका आत्माके साथ सम्बंध न होनेका नाम संबर है। १७ | आत्माका पूर्व संवन्ध हुये कर्मोसे सम्बंध छूट जाने को निर्जरा कहते हैं ।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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