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________________ २३६ जैनवालयोधकको मोहकर्मका तीव्र उदय हो आया और अनेक बंधु व सखियों के साथ रोती हुई पालकीके पीछे २ दौड़ती हुई चल पड़ी। माताको विह्वलचित्त और नगरके वारह तक आते हुए देख 'जलूसके संगमें जो महान पुरुप थे उन्होंने इस तरह समझाया। हे देवी! क्या तू जगत् गुरु अपने पुत्रका चरित्र जानती है ? यह तीन जगतका गुरु अद्भुत पराक्रमी है। यह प्रात्मछानी तीर्थकर संसार समुद्र में गिरते हुये अपने प्रात्माको पहले 'उद्धार करके उसके बाद बहुतसे भव्य जीवोंका उद्धार करेगा। हे शुभे! तेरे पुत्रका संसार अति ही निकट रह गया है, यह जगत को तारने समर्थ है सो दीन पुरुपकी नाई किस तरह घरमें प्रेम कर सकता है। इन वचनोंने माताके परिणामोंको बदल दिया। उसका शोक सारा जाता रहा और संसारका स्वरूप विचार अति धर्मानुराग सहित भर्मको हृदयमें रखती हुई वधुवर्ग और सखियों सहित अपने मंदिरको लौटी। भगवानकी पालकी वनखंड नामके वनमें पहुंची वहां प्रभुने एक स्फटिक शिला पर विराजमान हो अपने वस्त्राभूपण सर्व उतार दिये और "ओं नमः सिद्धेभ्यः" कह सिद्धोंको नमस्कार कर अपनी ही मुट्ठियोंसे अपने केशोंको घासको तरह उपाड़ डाला और नग्न वालकके समान मुद्रा धार तेरह प्रकार चारित्र मिती मार्गशीर्ष वदी १० के दिन धारण कर लिया। उस समय भगवान ताये हुये सुवर्णके समान शरीरकी प्रभा को धरनेवाले, जन्म समयके नग्नरूप धारी, स्वभावसे ही प्रति
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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