SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३७. चतुर्थ भाग। कांति और दीप्ति सहित तेजकी राशिके समान प्रकाशित होते हुए। स्वामी मुनिधर्मकी क्रियायोंको पालते हुए विहार करते हुए । प्रथम आहार कूलके स्वामी कुलाभिध राजाने दिया। दान नेते समय वीतराग हृदयके धरनेवाले तीर्थंकर वर्द्धमान रागादि भावोंको दूरसे ही त्याग करके हाथों को ही पात्र करके खडे हुये ! __ दीक्षा लेनेके वाद प्रभु आहारादिको अति तुच्छ कामना करते हुए शक्तिके अनुसार अपने आत्मध्यानमें मग्न होगये । उप-. देश देनेकी भी प्रवृत्ति छोड रात्रि दिन आत्मसमुद्रमें ही स्नान , करते हुए कभी २ गावोंमें जाकर शुद्ध पाहार ग्रहण करते हुए। प्रभुने एकाकी विना किसी वाहनके पैदल अनेक देश शहर 'प्रामों में विहार किया जिससे निस्पृहता रहै और ध्यानकी सिद्धि होसके। विहार करते करते आप एकदफे मालबाकी उज्जैनी नगरी के वाहर लशान भूमिमें जा पात्मध्यानमें तल्लीन हो गए-उज्जैनी में ११ वें रुद्र स्थाणु निवास करते थे इनकी ही स्त्रीका नाम पार्वती था। ये पहिले बहुत बड़े तपस्वी थे । जव इनको मंत्रादि विद्याएं सिद्ध होगई तब ये कामाशक हो विचलित हो गए और त्रियों में अनुरक्त हो रहने लगे ! स्मशानमें श्रीमहावीरस्वामीको परम सुन्दर यौवनवान ध्यानमग्न देखकर आप विचार करते हुए कि ऐसे पुरुषका मन कितना ध्यानमें दृढ है इस घातकी परीक्षा करना योग्य है । वस! पाप अपनी विद्याके वलसे नानाप्रकारके उपसर्ग करने लगे-सपो और विच्छूओंका उसना.
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy