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चतुर्थभाग
२३५ क्योंकि यौवनसे कामादिभाव बढ़ते हैं और पांच इन्द्रियरूपीचोर परम विकारको प्राप्त हो जाते हैं। राज्यलमीके सदृश गृहवासको कैदखानेके समान जानकर स्वामीने इसको त्यागकर तपोवनमें जानेका दृढ निश्चय किया।
दृढ़ निश्चय करके भगवान अपने माता, पिता प्रादि संबंधियों से मोह हटा अपने प्रात्मामें स्थिर हो, अपना स्वरूप अनुभवः करने लगे-और वैराग्यकी माता-संवरके कारण ·१२ भावनाओं का चितवन करने लगे--अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, प्रशुचि, मानव, संवर, निर्जरा. लोक, वोधिदुर्लभ, और धर्म इनका भिन्न २ प्रकारसे स्वरूप विचारते हुप, चैराग्यरसमें भीज गए और इस शरीरसे स्वरूप सिद्धिका ही निश्चय किया। कि-"यदि इस अपवित्र शरीरसे पवित्र गुणों के समूह केवल शात केवलदर्शनादि सिद्ध हो सके हैं तव इस कार्यके करनेमें विचार ही क्या करना। ___ वश! आप उद्यमी होगप-लौकांतिक देव पांचवें ब्रह्मस्वर्गसे: आकर आपकी अति प्रशंसा करने लगे-इन्द्रादिक देव श्राएअति मनोहर पालकी में प्रभुको विराजमान किया-भूमिगोचरीत्र विद्याधर राजा तथा इन्द्रादिक देव सर्व मिलके प्रभुकी सवारी राज्यांगणसे लेकर बडे जलूसके साथ नगर बाहर जाते हुए . नगरके नरनारी देख कर अति आश्चर्य करने लगे कि धन्य है कुमार, इन्होंने विना विवाह कराये व राज्य किये हो तपधारणका संकल्प कर लिया। राजा सिद्धार्थ त्रिज्ञानी थे-ऐसा ही होनेवाला था। ऐसा विचार कर शांतिसे चुप रहे । परंतु माता प्रियकारिणी