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________________ चतुर्थ माग। १३ ज्यों नर रहै रसाय कोप करि, त्यों चिंताभय विमुख यखान! ज्यों कायर शंकै रिपु देखत, त्यों दारिद्र भजे भय मान ! ज्यों कुनार परिहरै पंडपति, त्यो दुर्गति ठंडे पहिचान । हितुज्यों विभो त नहि सगति, सोसव जिनपूजा फलजान॥ जिस प्रकार कोई नर गुस्सा होकर विमुख हो वैठ जाता है उसी प्रकार जिनभगवान की पूजा करनेवालेके चिंता भय विमुख हो जाते हैं तथा शत्रुको देखकर जिस प्रकार कायर भयभीत होता है उसी प्रकार उसका दारिद्ध भय मान कर भाग जाता है और जिस प्रकार कुनार निर्वल पतिको छोड़ देती है उसी प्रकार उसको दुर्गति छोड़ देती है तथा संपदायें मित्र समान उस पुरुषका संग नहिं छोडती ॥३॥ जो जिनंद्र पूजै फूलनसौं, सुर नयनन पूजा तिस होय । चंदै भाव सहित जो जिनवर, पदनीक त्रिभुवनमें सोय ॥ जो जिन सुजस करे जन ताकी, महिमाद्र करे सुर लोय । जो जिन ध्यान करत वानारसि, ध्यावे मुनि ताकेगुनजोय ॥४॥ जो कोई जिनेंद्र भगवानको पुष्पोंसे पूजता है वह मनुष्य देवोंके नयनोंसे पूजा जाता है अर्थात् देव उसका हमेशह दर्शन करते रहते हैं और जो कोई भावसहित भगवानकी वंदना करता है वह तीन लोकमें वंदनीक हो जाता है अर्थात् तीर्थकर पद पा जाता है और जिनेंद्र भगवानके गुगा गाता है उसकी स्वर्गलोकमें इन्द्र प्रशंसा करता है तथा जो कोई जिनेंद्र भगवान का ध्यान करता है उस पुरुषका ध्यान मुनिगण किया करते है। अर्थात् वह सिद्धपदको पा जाता है जिसका ध्यान मुनिजन' हमेशह किया करते हैं ॥४॥
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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