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चतुर्थ भाग ।
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२० । जो शुद्ध द्रव्यको ग्रहण करे उसे शुद्ध निश्चय नय कहते हैं । जैसे- जीवको शुद्ध दर्शन ज्ञान अर्थात् केवल दर्शन केवल ज्ञानका कती कहना |
२१ । जो अशुद्ध द्रव्यको ग्रहण करें उसे अशुद्ध निश्चय नय कहते हैं। जैसे जीवको क्षयोपशमरूप मतिज्ञानादिकका क कहना |
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११. जिन वचन सेवाका उपदेश ।
कुंडलिया छन्द ।
देव अदेव नही लखै, सुगुरु कुगुरु नहि लुक | धर्म अधर्म गिनै नही, कर्म कर्म न चूक ॥ कर्म अकर्म न वूझ, गुण रु श्रगुण नहि जानहि । हित अनहित नहि सधै, निपुण मूरख नहि मानहि ॥ कहत बनारसि ज्ञान दृष्टि, नहि अघ श्रवेवहि । जैन वचन इगहीन, लखे नहि देव अदेव हि ॥ १ ॥ अर्थ-जिन वचन रूपी नेत्रोंसे रहित अज्ञानी अंधे होते हैं। उनके ज्ञान दृष्टि नहिं होती इस कारण वे मूर्ख न तो देव कुदेव को पहिचानते, न कुगुरु सुगुरुको जानते, न धर्म अधर्मको गिनते और न कर्म अकर्म ही समझते, न उनसे हित अहित ही सधता मूरख पंडितमें भी भेद नहिं मानते श्रतएव जैन शास्त्रोंका स्वाध्याय ( पठन पाठन ) करते रहना चाहिये ॥ १ ॥