SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनबालवोधक सवैया ३१ माया। ताको मनुज जनम सब निष्फल, मन निष्फल निष्फल जुगकान। गुण पर दोष विचार भेद विधि, ताहि महा दुर्लभ है हान ॥ ताको सुगम नरक दुख संकट, अगम्यपंथ पदवी निर्वान । जिनमत वचन दयारस गर्भित, जे न सुनत सिद्धांत बखान ॥ अर्थ-जिनमत वचन दयारस पूरित हैं ऐसे जैन सिद्धांत. को जो नहिं सुनता उस मनुस्यका जन्म पाना व्यर्थ है । उसका मन वा कान पाना भी व्यर्थ है। उसके लिये गुणदोपोंका विचार करनेको विवेक मिलना भी दुर्लभ है तथा उसके लिये नरकमें जाकर दुख संकट सहने तो सुगम है किंतु मोक्षपद पाना बहुत मुस्किल है ॥२॥ परपद ( छप्पय )। अमृतको विप कहैं, नीरको पावक मानहिं । तेज तिमिर सम गिनहि, मित्रको शत्रु बखानहिं ॥ पहुपमाल कहिं नाग, रतन पत्यर सम तुलहि। चंद्र किरण प्राताप स्वरूप, इहि मांति जु भुलहि ॥ • करूणा निधान अमलान गुण, प्रगट बनारसि जैनमत। परमत समान जो मन धरत, सो अजान मूरख अपत । ३॥ .. अर्थ-जैनमत (जैनागम) प्रगटतया निर्मल गुणवाली करुणाको (दयाकी ) खानि है। इसको जो कोई अन्य मतोंकी समान जानता है वह मूर्ख वा भवानी अमृतको तो विष कहता है और जलको मनि मानता है, प्रकाशको अंधकारके समान गिनता है तथा मित्रको शत्रु कहता है। पुष्पोंकी मालाको सर्प
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy