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________________ ! चतुर्थ भाग । २५ और रतनको पत्थरको समान तुलना करता है। तथा चंद्रमाकी शीतल किरणोंको प्रतापकारी समझकर भूलता है ॥ ३ ॥ मरहटा छंद । शुभधर्म विकाश, पाप विनाशै, कुपथ उद्यप्पन हार मिथ्यामत खंडै, कुनय विहंडे, मंडै दया अपार ॥ तृष्णामद मारै. राग विडारै, यह जिन आगम सार । जो पूजे व्यावै, पढे पढावै, सो जगमाहि उदार ॥ ४ ॥ अर्थ--जो सार जिनागमको पढता पढाता है मनन करता वा पूजता है वह जगतमें उदार पुरुष है और वह शुभ धर्मको प्रकाशता है पापको नष्ट करता है कुमार्गको उत्थापन करनेवाला हैं, मिथ्यामतको खंडन करता है कुनयोंको दलता है अपार दया का मंडन करता है, तृष्णामदको मारकर राग द्वेपको छोड़ देता है ॥ ४ ॥ 4 १२. त्रेसठ शलाकापुरुष ( उत्तमपुरुष ) -:०:- ------ इस भरतक्षेत्रमें वर्त्तमान अवसर्पिणीकालके ६ विभाग में से वर्ष कम एक चौथा-दुखमासुखमा नामका काल ४२ हजार कोडाकोडी सागरका होता है। इसी कालमें २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती ६ नारायण १ प्रतिनारायण और ६ बलभद्र इसप्रकार ६३ उत्तम पुरुष ( शलाकापुरुष) जगत्पूज्य होते हैं । इनके शिवाय ९ नारद ११ रुद्र और २४ कामदेव भी जगन्मान्य उत्तम } .11.
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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