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________________ चतुर्थ भाग । ३७. छहढाला सार्थ - दुसरी ढाल । -:०: पद्धरि छंद । ऐसें विथ्या - गज्ञान च । वंशभ्रमत भरत दुख जन्म पर्ण ॥ ૭૨ तातें इनको तजिये सुजान । सुन तिन संछेप कहूं बखान ॥ १ ॥ मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रके कारण ही यह जीव ऊपर कहे हुये संसार में भ्रमण करता है और नानाप्रकारके जन्म मरण संबंधी दुःख भोगता है । इस कारण इन तीनोंको भले प्रकार जानकर त्यागना चाहिये। मैं इन सबको संक्षेपले कहता हूं सो सुनो ॥ १॥ जीवादि प्रयोजन भुन तत्र । सरधै तिन माहि विपर्ययत्व ॥ चेतनको है उपयोग रूप | विनमूरति चिनमूरति अनूप ॥२॥ - पुल नभ धर्म अधर्म काल | इनतें न्यारी है जीब चाल || -ताको न जानि दिपीति मानं । करि, करें देहमें निजं पिछान ॥ मोक्षमार्गमें जीव प्रजीव आस्रव वंघ संवर निर्जरा और मोक्ष सात तत्व प्रयोजनभूत ( अपने मतलवके) हैं । इनमें "भौरका और उल्टा श्रद्धान करना--कर लेना मिथ्यादर्शन है । जीवकां -स्वरूप उपयोगमय है । प्रमूत्तिकं चैतन्यमय है सो यह जीवका स्वरूप पुद्गल, धर्म, धर्म, प्रकाश और काल इन पांच अजीव
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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