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जैनबालबोधकपदार्थोसे भिन्न है। परंतु यह जीव इसको इसी प्रकार न जानकर इसके विपरीतजड़ रूप देहको ही प्रात्मा (श्रांत्माजीव )मान अद्धान कर लेता है और जान लेता है। मैं दुखी सुखी मैं रंक राव । मेरो धन गृह गोधन प्रभाव ।। मेरे सुत तिय मैं सबळ दीन । वेरूप सुभग मूरख प्रवीन । तन उपजत अपनी उपज जानि। तननशत आपको नाम मानि. रागादि प्रगट जे दुःख दैन। तिनहीको सेवत गिनत चैन ॥५॥
शुभ अशुभ बंधके फल मझार।
रति अरति करी निज पद विसार ॥ प्रातहित हेत विराग ज्ञान |
ते लख आपको करदान ॥ ६ ॥ रोकीन चाह निज शक्ति खोय।
शिवरूप निराकुलता न जोय ॥ ऐसा उलटा श्रद्धान होनेके कारण ही यह जीव मान लेता है कि- मैं दुखी हूं, मैं सुखी हूं, मैं दरिद्र हूँ, मैं राजा हूं, यह घर गोधन संपदा श्रादि सब मेरा ही प्रभाव है। ये स्त्री पुत्र सा. मेरे ही है, मैं ही बलवान हूं मैं ही दीन कुरुप सुंदर और भूरख
और पंडित है। इसी प्रकार अपने शरीरको उत्पन्न होते अपनेको; उत्पन हुआ, और शरीरको नाश होते अपनेको नाश हुमा मान लेता है। और रागादि कषाय भाव प्रत्यक्षतया दुख देने वाले.. है परंतु इन हीको धारण करनेमें सुख मानता है। तथा शुभबंध.