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जैनवालबोधक
तत्पश्चात् हनुमान श्रीराम लक्ष्मण से मिलकर उनके भक्त हो गये और उनके युद्धमें पूर्ण सहायता देकर श्रीरामको लंकार विजय कराई । श्रीरामने विभीषणको लंकाका, विराधित को लंकापुरीका ( पाताललंकाका ) भामंडलको रथनूपुरका, Treathi देवोपनीत नगरका और हनुमानजीको श्रीनगर तथा हनुरुह द्वीपका राज्य दिया। हनुमानजी व पूर्वपुराय के प्रतापले श्रीनगर में राजधानी बनाकर सुखसागर में मग्न हो गये ।
एक समय वसंत ऋतु में हनुमानको प्रकृत्रिम चैत्यालयोंके दर्शन करनेकी इच्छा हुई । समस्त रानियों मंत्रियों सहित ढाई द्वीपके समस्त चैत्यालयों के दर्शन करके सुमेरुपर्वत पर आये ! वहां पूजन भजनादि करके घर लोट रहे थे, कि मार्गमें रात्रि हो जानेसे सुरदुंदुभी नामा पर्वतपर ठहर गये । परस्पर वार्ता - लाप हो रहा था कि - हनुमानजीको आकाशमें एक तारा टूटता हुआ दिखाई दिया तो आपको संसार शरीर भोगोंकी प्रसारता प्रतीत होने लगी । और द्वादश भावनारूप विचार करके सुनिदीक्षा लेनेको उद्यत हो गये । प्रभात होते ही चैत्यवान नाम के वनमें संतचारण नामके चरण ऋद्धिके धारक मुनिमहाराज से साढ़े सातसां राजाओं के साथ मुनिदीक्षा ग्रहण करके धोर तपश्चरणपूर्वक तुंगीगिरि पर्वतसे मुक्ति धामको पहुंच गये।
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