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________________ २६६ जैनवालबोधकसंयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संबित्व, आहार । १३ । गतिनामा नामकर्मके उदयसे जीवकी पर्याय विशेषको गति कहते हैं। गति चार है-नरकगति, तियचगति मनुष्यगति, देवगति। १४। प्रात्मा लिंगको (चिह्न) इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रिय दो प्रकारको है। द्रव्येद्रिय और भावेंद्रिय । १५ । निवृत्ति और उपकरणाको द्रव्येद्रिय करने है। १६ । प्रदेशोंकी रचना विशेषको निवृत्ति कहते हैं । निर्वृत्ति दो प्रकारकी होती है। १ वाहानिवृत्ति २ आभ्यन्तर निवृत्ति । १५ इन्द्रियों के आकाररूप पुद्गलकी रचनाविशेषज्ञो वाय निवृत्ति कहते हैं। १८ । आत्माके विशुद्ध प्रदेशोंकी इन्द्रियाकार रचनाविशेषको आभ्यन्तर निवृत्ति कहते हैं। १६ जो निवृत्तिकी रक्षा (उपकार) कर उसे उपकरण कहते हैं। उपकरण भी वाह्य आभ्यंतरके भेदसे दो प्रकारका है.! __२० : नेत्रंद्रियमें पलकवगेरहकी तरह जो निवृत्तिका उपकार करै, उसको वाह्योपकरण कहते हैं। . २९ नेत्रंद्रियमें कृष्ण शुक्ल मंडलकी तरह सब इन्द्रियों में जो निवृत्तिका उपकार करै उसको श्राभ्यन्तर उपकरण कहते हैं । २२। लब्धि और उपयोगको भावेंद्रिय कहते हैं । - २३: ज्ञानावर्ण कर्मके क्षयोपशमविशेषको लब्धि कहते हैं और क्षयोमशम हेतुक चेतनाके परिणाम विशेषको उपयोग कहते हैं । २४ । द्रव्यद्रिय पांच प्रकारकी है-स्पर्शन, रसना, घ्राण,
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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