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________________ चतुर्थ भाग । २६५ है। (औडयिकमांच इक्कीस प्रकारके होते हैं, -यथा गति ४ कपाय ४ लिंग ३ मिथ्यादर्शन १ असंयम १ असिद्धत्व १ लेम्या ६ ( पीत, पद्म शुक्ला, कृष्ण, नील, कापोत) ६ | जो उपशम, क्षय, क्षयोपशम वा उदयको अपेक्षा न रखता हुआ जीवका खास स्वभाव मात्र हो उसको पारिणामिक भाव कहते हैं । पारिणामिक मात्र तीन हैं । जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व | ७ 1 कंपायके उदयसे अनुरंजित योगोंकी प्रवृत्तिको भाव भ्यां कहते हैं और शरीर के पीत पद्म आदि वर्ण होनेकी द्रव्य लेश्या कहते हैं । ८ । जीवके लक्षणरूप चैतन्यानुविधायो परिणामको उपयोग कंदते हैं | उपयोग दो प्रकारका है। एक दर्शनोपयोग दुसरा ज्ञानोपयोग । ६ । दर्शनोपयोग चार प्रकारका है-चतुर्दर्शन, अचतुर्दर्शन, अवधिदर्शन, और केवलदर्शन | १० । धानोपयोग आठ प्रकारका है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवविज्ञान, मनः पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, और कुप्रवधिज्ञान । ११ । अभिलाषा या वहाको संज्ञा कहते हैं। संज्ञा चार हैंआहारसंज्ञा, भवलक्षा, मैथुनसंज्ञा, और परिग्रहसंज्ञा । १२ | जिन-जिन धर्म विशेषोंसे जीवोंका अन्वेषण (खोज) किया जाय उन उन धर्म विशेपोंको मार्गणा कहते हैं । मार्गणा चौदह प्रकार है गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कपाय, ज्ञान,
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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