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________________ ३६० जैनवालवोधकपर्याय रातो मदहि माती, फिरै फूल्यो फुल्लचौ (१)। यौं कहै दरिगह धरम जिनवर, वैवै जीव न भुल्लवौ ॥१॥ तू यह मणुत्तन, काहे मूढ़ गंवावै । सासय सुखदायक, सो तू ढूंढि न पावै ॥ ढूंढे न पावै पासि तुम हो, आपआप समावए । गुनरतन मूठीमाहिं तेरी, काई दह दिसि धावए । वह राज अविचल करहि शिवपुर, फिर ससार न श्रावए यौं कहै दरिगह यह मणुतण, काहे मूढ़ गवावए ॥२॥ दरसन विन भूला, लीनासंजमभार। फाया कष्ट किया, सहै परिसहसार ! सारे परीसह सहै दुद्धर, पार नवग्रीवक गयौ । मारग न जान्यौ पौ उन्मग. मामि भववन थकि रह्यो । सोधरम कबहुं न पालिसकियो जो जु जिन.आगम कहो। यौं कहै दरिगह ख्याति-तौ, भार संयम जिय वह्यो । समकित प्रोहण चढि, ज्यौं पायहि भवपार । दरसन विन मूढा, करनी सबै असार ॥ करनी सवाई नाव पाथर, चढि न डूवै रे जिया। सब जाय अहिला विना दरसन, सील संजम तप किया। १ मनुज-तन अर्थात् मनुष्यका शरीर । २ शाश्वत-अविनाशी । ३ समा ना- लवलीन हो जा । ४ दशोंदिशाओंमें क्यों दौडता है ? ५ नव प्रैवेयिक तक । ६ उन्मार्ग-खोटा मार्ग । ७ प्रसंग्रामें रत होकर । ८ जहान । ९ व्यर्थ। - -
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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