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________________ ३६१ चतुर्थ भाग। ज्यों लाव ऊपर चढे वाजी, लेय वांस अधार वे। यौं कहै दरिगह सेय जिनवर, ज्यों पावै भवपार वे ॥४॥ सुन सुन जियरा रे, तृत्रिभुवनका राव रे। तू तजि परभाव रे, चेतसि सहज सुमाव रे ॥ चेतसि सहज सुभाव रेजियरा, परसौं मिलि क्याराच रहे। अप्पा पर जान्या पर अप्पाणा, चउगइ दुःख अंगणाइ सहै ॥ अब सो गुन कीजै कर्मह छीजै, सुगहु न एक उपाव रे । दसणणाणचरणमय रे जिय, तू त्रिभुवनका राव रे ॥१॥ कर्मनि वसि पड़िया रे, प्रणया मूढ़ विभाइ रे। मिथ्यामद नडिया रे, मोह्या मोह अनाहरे॥ मोहा मोह अनाइ रेजियड़े, मिथ्यामद नित माचिरह्या। पंडि पडिहार खड़ग मदिरावत, शानावरणी श्रादि कहा ॥ खोड़ा चिंत्री कुलाल भंडारी, आठौं दिये पताइरे। रेजियडे करमनिवसि पडिया, प्रणया मूढ़ विभाइ रे ॥२॥ तू मति सोवहि नचीता रे, वैरिनमैका वासरे। भव भव दुखदायक रे, तिनका करहि विसास रे॥ तिनका करहि विसासरे जिवडे, तु मूढा नहिं निर्मपु डरै। जामन मरण जरा दुखदायक, तिनसौं तु नित नेह करै । प्रापैशाता आप हया, कहि समझाऊँ कासरे। १ वरद । २ वाजीगर-नट | ३ अपनाया । ४ चारों गति । ५अनादि । परिणया। ७ परदा। ८ द्वारपाल |९ चित्रकार । १० विश्वास । । जरा भी। १२ किसको
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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