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________________ ३०० जैनवालवोधकजिनके न लेश मृषा न जल तृण, हू विना दीयो गहैं। . अठदश सहस विधि शीलधर, चिब्रह्ममें निन रमि रहैं। ' - मुनियोंके षट्कायके जीवोंकी हिंसाका त्याग होनेसे सर्वप्रकार की द्रव्य हिंसा छूटगई। और रागद्वेष मोहादि भावोंके डर होने से भाव हिंसा भी नहीं होती। इसके सिवाय लेशमात्र भी अस. त्यवचन नहिं वोलते और विना दिया एक तृण भी नहिं ग्रहण करते और अठारह हजार दूपण रहित ब्रह्मचर्यको धारण करते हुये विद्ब्रह्ममें ही हमेशह मग्न रहते हैं ॥१॥ इसके सिवाय अंतरचतुर्दश मेद बारह संग दशधाते टलैं। परमाद तजि चौ कर मही लखि समिति ईयाते चलें ।। • सुनग हितकर सब प्रहितहर, श्रुतिसुखद सब संशय हरें। . भ्रमरोग-हरजिनके वचन, मुखचन्द्रअमृत झरें॥२॥ - अंतरंग चौदह और वाह्यके दश परिग्रह रहित हैं इसप्रकार पांच महाव्रत पालते हैं। तथा परमाद रहित हो चार हाथ परिमाण मार्ग देखकर चलते हुएईर्यासमिति पालते हैं। सबके हित करनेवाले और अहित हरनेवाले कानोंको प्रिय संशयके हरने व भ्रमरोग हरनेवाले मुखरूपी चंद्रमासे अमृतकीसमान वचन उमारणकर भाषा समितिका पालन करते हैं ॥२॥ छयालीस दोष पिना सुकुल श्रावक तणे घर असनको। लैं, तप चढावन हेत नहि. तन, पोखते तजि रसनको ॥ अचि ज्ञान संजम उपकरन, लखि गर्दै लखि धरें। निजेतु थान बिलोक, तनमल मंत्रश्लेषम परिहरैं॥३॥
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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