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________________ ३३० जैनवालवोधक बनाये गये हैं सो यह वीन वीन कर उन्हीं चावलोंको खाता है । राजाने खुश होकर पुगयात्मा सुकुमालको प्रशंसा करके कहा कि. माताजी ! आज तक तौ यह तुमारे घरके ही सुकुमाल थे परंतु अब मैं इसे अवंतिसुकुमालकी पदवी देकर सारे देशका सुकुमाल . बनाता हूं। तत्पश्चात् - राजा और सुकुमाल यागकी बावड़ी में जल क्रीड़ा करने को गये सो राजाकी एक बहुमूल्य अंगूठी जल में गिर पड़ी उसको ढूंढने लगे तौ देखा गया कि हजारों बहुमूल्य रत्न जडित गहने उस बावड़ी में पड़े हैं। उन्हे देखकर राजाकी अकल चकराई। सुकुमाल के अनंत वैभव को देख कर बड़े ही चकित हुये, कुछ शरमिंदा होकर महन्तको लौट आये यशोभद्राने रत्नोंसे भरे हुये थाल राजाकी भेटमें दिये और विदा किया ! हे विद्यार्थियो ! यह धन धान्यादि संपदाका मिलना, पुत्र, मित्र, सुंदर स्त्रोका प्राप्त होना अच्छे वस्त्र आभूषण आदि समस्त प्रकारको भोगोपभोग सामग्रीका प्राप्त होना एक मात्र पुण्यका प्रताप है और पुण्य जिनेंद्र भगवान्की पूजा करनेसे पात्रों को दान देने से भौर पंचाणुव्रत धारण करने आदि से होता हैं सो तुम भी ये सब कार्य करो । एक दिन जैन तत्वोंके पारगामी सुकुमालके मामा गणधराचार्य सुकुमालकी प्रायु बहुत थोड़ी रही जानकर उसके महल पीछे वागमें आकर ठहरे और चतुर्मास लगजानेसे उन्होंने वहीं पर चातुर्मालिक योगधारण कर लिया। यशोभद्राको उनके आने और चतुर्मास योग धारण करने की खबर मिली तौ वह
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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