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चतुर्थ भाग।
३३१ दौड़कर आई और वंदना करके कह आई कि महाराज जब तक प्रापका चतुर्मास पूरा न हो तब तक आप ऊंचे स्वरसे स्वाध्याय या पठन पाठन न किया करें । जव उनका चतुर्मास पूर्ण हो गया तब उन्होंने योग संबंधी समस्त क्रियायें पूर्ण करके त्रिलोक प्रशप्तिका पाठ कुछ ऊंचे स्वरसे करना प्रारंभ किया। उसमें उन्हों ने अच्युतस्वर्गके देवोंको श्रायु काय आदिकी ऊंचाई वगेरहका वर्णन खूब अच्छी तरहसे किया था सो उसे सुनकर सुकुमाल को जातिस्मरण हो गया। पूर्व जन्ममें पाये हुये दुःखोंको यादकर वह कांप गया फिर क्या था उसी समय चुपकेसे महलसे उतर कर मुनिमहाराजके पास पाकर साष्टांग प्रणाम किया और वैठगया। मुनिमहाराजने कहा-वेटा! अव तुमारी आयु सिर्फ तीन दिनकी रह गई है इस लिये अव तुम्हे इन विषय भोगोंको छोड़कर आत्महितमें लग जाना चाहिये । ये विषयभोग पहिले कुछ अच्छेसे लगते हैं परंतु इनका अन्त बड़ा ही दुखदाई है। जो विषय भोगोंकी धुनमें ही मस्त रहकर अपने हितकी तरफ ध्यान नहिं देते. उन्हे कुगतियोंमें अनंत दु:ख उठाने पड़ते हैं। यद्यपि शीत कालमें अग्नि शरीर को सुखदायक प्यारी लगती है परंतु घनिष्ट संबंध करते ही यानी कृते ही जलादेती है इसी प्रकार ये विषय भोग हैं।
इस प्रकार मुनिमहाराजका उपदेश सुन सुकुमालको बड़ा वैराग्य हो गया और उसी समय सुखदायक जिन दीक्षा लेकर मुनिमहाराजके साथ वनमें चल दिया। जो सुकुमाल फूलोंकी. शय्या पर सोते और फूलों सरीखी कोमल फर्सपर चलते थे।