SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ भाग। ३१३ 'विनसै दुख तेरा भवव करा, मनवचतन जिनचरन भजौ। पंचकरन वश राख सुशानी, मिथ्यामतमग दार तजी। मिथ्यामतमग पगि अनादित, ते चहुंगति कीन्हा फेरा । अबट्ट चेत अचेत होय मत, सीख वचन सुन मन मेरा॥१॥ इस भववनमें वे, ते साता नहिं पाई। बमुविविवश ह वे, ते निजसुधि बिसराई । तें निजमुधि विसराई भाई, तातें विमल न वोध लहा। परपरनतिमें मगन भयो त, जन्म-जरा-मृत-दाह दहा । जिनमत सारसरोवरकों अब, गाहि लागि निजचिंतनमें । तो दुखदाह नशै सब नातर, फेर फंसे इस भववनमें २॥ इस तनमें तू वे. क्या गुन देख लुभाया। महा अपावन वे, सतगुरु याहि वताया ॥ सतगुरु याहि अपावन गाया, मलमूत्रादिकका गेहा। कृमिकुल कनित लखत घिन आवे, यासों क्या कोजे नेहा । यह तन पाय लगाय आपनी, परननि शिवमगसाधनमें । तो दुखदंद नशै सब तेरा, यही सार है इस तनमें ॥३॥ भोग भले न सही रोग शोकके दानी । शुभगतिरोकन वे, दुर्गतिपय अगवानी ॥ दुर्गतिपयश्रगवानी हैं जे, जिनकी लगन लगी इनसौं। तिन नानाविधि विपति सही है, विमुख भया निजसुख तिनसौं १ संसाररूपी वनका । १ पांच इन्द्रियां । ३ आठ कमाके वश हो कर।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy