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जैनवालबोधक
२. धर्मोपदेश । दोधकांतवेशरी छंद ।
सुपुरुष तीन पदारथ साधहि, धर्म विशेष जानि आराधहि । धर्म प्रधान कहै सब कोय, अर्थ काम धर्महित होय । ४ ॥
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धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वान । धर्म पंथ साधन विना, नर तिर्यच समान ॥ १०
अर्थ- सुपुरुप धर्म अर्थ इन तीन पदार्थोंका साधन करते हैं इनमें से भी धर्मको विशेषतया जानकर प्याराधन करते हैं सब कोई धर्म को ही प्रधान कहते है क्योंकि अर्थ (धन) और काम एकमात्र धर्म साधनसे ही होते हैं । धर्म करनेसे सांसारिक सुख और धर्मसे ही मुक्ति होती है उस धर्म पंथको ( सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको ) साधे विना मनुष्य पशुकी समान है ॥ १ ॥
कवित्त ३१ मात्रा |
जैसे पुरुष कोई धनकारन हींडते दीप दीप चढ़ याने । आवत हाथ रतन चिंतामणि, डारत जलैधि जान पापान ॥ तैसैं भ्रमत भ्रमत भव सागर, पावत नर शरीर परधान । धर्म यत्न नहिं करत 'बनारस' खोवत वादि जन्म अज्ञान ॥२ ॥ मत्तगयंद सवैया ।
ज्यों मतिहीन विवेक विना नर, साजि मतंगज ईंधन ढोवै । कंचन भाजन धूलि भरै शठ, मूढ सुधारससों पग धोवै ॥ १ फिरता है. २ गाडी नौका रेल जहाज वगेरहमें ३ समुद्र, ४ व्यर्थ,