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चतुर्थ भाग। प्रभु दीन बंधु करुनामयी, जग उधरन तारन तरन । दुख रास निकास स्वदासकौं, हमें एक तुम ही सरन ॥ ८॥
देख नीक लखि रूप, बंदिकरि वंदनीक दुव । पूजनीक पद पूज, ध्यानकर ध्यावनीक धुव ॥ हरप वढाय बनाय, गाय जस अंतर जामी ।
दरब चढ़ाय अघाय, पाप संपति निधि स्वामी ॥ तुम गुण अनेक मुख एक सौं, कौन मांति बरनन करौं । मन वचन काय घटु प्रीतिलौं, राम नाम ही सों तरों ॥
चैत्यालय जो करै, धन्य सोश्रावक कहिये ।, तामै प्रतिमा धरै धन्य सो भी सरदहिये ॥ 7 जो दोनों विस्तरै, संघनायक ही जानौ । वात जीवकों, धर्म मूल कारण सरधानौ ॥ इस दुखम काल विकराल में, तेरो धर्म जहां चले । हे नाथ काल चौयौ तहां, इति भोति सर ही हलै ॥ १०॥ दर्शन दशक कवित्त, चित्त सों पढ़े त्रिकालं । प्रतिमा सन्मुख होया खोय चिंता गृहजाल । सुखमें निसिदिन जाय, अंत सुरराय कहावै ।
सुर कहाय सिवपाय; जनम मृति जरा मिटावे ॥ धनि जैन धर्म दीपक प्रगट, पाप तिमिर छयकार है। लखि 'साहिब राय' सु आंखि सौ,सरधा तारन हार है ॥११॥
१ साहिवराय नामके-द्यानतरायजीके एक मित्र थे, उन्हीका नाम "इनमें प्रेमसे सार्थ डाल दिया है।