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________________ चतुर्थ भाग । वाहित कागउडान कारण, डारि महामणि मूरख रोवे । त्यों यह दुर्लभदेह 'चनारसि' पाय अजान प्रकारथ खोत्रें ॥ ३ ॥ अर्थ- जो अज्ञानी अत्यंत दुर्लभ मनुष्य शरीरको पाकर धर्म साधन के बिना व्यर्थ ही खो देता है वह मतिहीन शठ विना विवेकके मानी हाथीको सजाकर उससे ईंधन ढोता है, या सोने के थालमें धूल भरता है, या अमृतले पांव घोता है या कौवेको उडानेके लिये चिंतामणि रत्न फेंककर न मिलनेसे रोता है ॥ ३ ॥ कवित्त ३१ मात्रा | ल्यों जरमूर रखारि कल्पतरु, चांवत मूढ कनकको खेत । ज्यों गजराज वेचि गिरवर सम, कूर कुबुद्धि सोल सर लेत । जैसे छांडि रतन चिंता मणि, मूरख काचखंड मनदेत । तैसें धर्म विसार 'बनारस' धावत अधम विषयसुख हेत ॥ २॥ जो अधम प्राप्त हुये धर्मको छोड़कर विषयसुख भोगनेके लिये दौडते हैं. वे बडे ही मूर्ख हैं. वे क्या करते हैं-मानो कल्प वृत्तको जड़मूल से उखाड़कर धतूरेका खेत वोते हैं अथवा वे क्ररबुद्धि पर्वत समान हस्तीको बेचकर गया मोल लेते हैं. अथवा वे मूर्ख चिंतामणि रत्नको छोड़कर काचके खंड लेते हैं । सोरठा । ज्यों जल वूडत कोई वाहन तजि पाहन है । त्यों नर मूरख होइ, धर्म छांड़ि सेवत विषय ॥ ५ ॥ जैसे कोई जलमें डूबता हुआ नावको छोड़कर पत्थरको ग्रहण
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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