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________________ २१० जैनबालबोधकमिल सकता है ? अहो ! जब समुद्रप्रमाण जलके पीनेसे ही न्यास नहिं बुझी तो तिनकेकी बूंदसे वह प्यास कैसे मिट सकती है। अग्निमें इंधन झोंकनेसे अग्नि कभी नहिं बुझती परंतु बढ़ती ही जाती है। नदियोंसे समुद्रकी कभी नृप्ति हुई है क्या? कभी नहीं, उसी प्रकार ये विषय भोग अतिशय विकट हैं इनके भागते रहनेसे कभी तृप्ति नहिं होगी । विषय भोग व्यों ज्यों अधिक २ भोगनेको मिलते हैं त्यों त्यों उनके भोगनेकी लालसा अधिक २ पढ़ती जाती है विषयभोग लालसा विपय भोगनेसे नष्ट होती है ऐसा जो कहते हैं वे घी डालके अग्नि वुझानेको कहते हैं। ये विषयभोग भोगते समय बड़े प्रिय लगते हैं परंतु उनके फल बहुत कटुक होते हैं। जैसे कोई मनुष्य धतूरा खालेता है तो उसे सब सोना ही सोना दीखता है। विषको वेलने लगे हुये फल जिस प्रकार प्राणोंके घातक है उसी प्रकार ये विषयभोग प्राणघातक हैं । धिक्कार है इस इन्द्रियसुखको जिसके लोभमें यह जीव अनादि कालसे इसका स्वाद चखता २ भ्रमण करता फिरता है। इन्द्रियसुखोंके वशीभूत होनेसे ही इसको किसीका उपदेश प्रिय नहिं लगता और उसके लिये नानाप्रकारकेपाप कार्य करता रहता है। स्थावर और स जीवोंकी हिंसा इस इन्द्रिय सुम्बके कारण ही करता है-चोरी ठगाई भी इसी विषयभोगकालये करता है, परलीकी पां भी इसी विषयतृष्णाकेलिये करता है। परिग्रहोंकी तृष्णा बढाना भी इन्द्रियविषयों के लिये करता है। अर्थात् जितने अनर्थ है वे सब एकमात्र इन्द्रियजनित विषय सुखकेलिये ही होते हैं परंतु शेषमें उन विषयोंकी तृप्ति तो होती
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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