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जैनवालबोधक
कुछ दिन बाद सुग्रीव हनुमानादि और प्रजाके प्रतिनिधियोंने प्रार्थनाकी कि सीता सर्वथा पवित्र हैं उनको लाना चाहिये ast मुसकिल से समझा कर सीताजीको बुलाया । उसने हाथ जोड़कर कहा कि-लोकापवाद दूर करनेके लिये जो आप कहें सो करूं । श्रीरामने कहा- अग्निमें प्रवेश करो। सीताने स्वीकार किया। तब तीन सौ हाथ लंवा चौड़ा अग्निकुंड तैयार हुआ । सीता, पंचपरमेष्ठीका स्मरण करके "मैंने श्रीरामके सिवाय स्वप्न में भी यदि य पुरुषकी वांछा की हो तो मैं इस अग्नि-कुंडमें भस्म हो जाऊं ।' ऐसा कहकर कूद पड़ी। समस्त लोक हाहाकार करते ही रह गये परंतु वह पवित्र पतिव्रता थी । क्या मजाल जो अग्नि उसे जलावे ! तुरंत ही देवोंने निर्मल जलका सरोवर बना दिया। इतना पानी बढ़ा कि लोग बहनेलगे । उस पर सहस्रः दलका कमल और कमलासनपर सीताजी बैठी। दिखायी पडने लगीं । देव उसके शीलव्रतकी प्रशंसा करके धन्य धन्य जय जय शब्द करके पुष्पोंकी वर्षा करते दीखने लगे। लवणांकुश माताकी देवोंके द्वारा प्रशंसा सुन दोनों ओर जा खड़े हुये । रामचंद्रजी ऐसे मुग्ध हुये कि उसके पास जाकर अपने अपराधक क्षमा प्रार्थना करने लगे और घर चलकर सबका सुखी करने के लिये कहा । परंतु सीताजीने संसारका सार जान लिया । सिवाय दुःखके संसार में कुछ नहीं है इस. कारण उससे विरक्त हो पृथिवीमती अर्जिकासे दीक्षा लेकर घोर तपस्याके द्वारा स्त्रीलिंग छेदकर अच्युत स्वर्ग में इन्द्रकी पर्याय धारण की ।