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________________ ११७ चतुर्थ भाग । ता दुखहारी सुखकार । कहें सीख गुरु करुणा धारि ॥ ताहि सुनह पविपन थिर धान । जो चाहे अपना कल्यान ॥ तीन लोकमें जो अनंत जीव हैं. वे सबही सुख चाहते हैं दुख से भयभीत रहते हैं । इसकारण दयाकरके श्रीगुरु दुखको हरनेवाली सुखको करनेवाली शिक्षाको ( श्रागें ) कहते हैं । उसे मनको स्थिर करके सुनो । मोहमहापद पियो अनादि । भूल आपको भरमत वादि || तास पनकी है बहु कथा । पै कछु कहू कही मुनि जया ॥ यह जीव अनादि काल से अज्ञानरूपी मदिराको पीकर असली स्वरूपको भूलकर व्यर्थही संसारमें भ्रमण करता है। इस भ्रमण करने की बहुत बड़ी कहानी है उसको जैसी - पूर्वाचार्यों ने कही है, मैं भी कुछ कहता हूं । काल अनन्त निगोद मकार । वीत्यो एकेंद्रिय तन धार ॥ एकस्वासमें अठदश वार | जन्म्यो मरयो भरयो दुखभः ॥ निकसि भूमि जल पावक भयो । पवन प्रत्येक वनस्पति थयो दुर्लभ लहिये चितामणी । त्यों परजाय लही त्रसती || लट पिपल अलि आदि शरीर । घर घर मरयो पही बहु पीर प्रथम तौ इस जीवने अनादिकालसे एकेंद्रियका शरीर धारण करके अनंतकाल निगोदमें ही विताया सो वहां एक श्वासमें १ | एक मुहूर्त दो घडी अर्थात् ४८ मिनिटका होता है । इस एक मुहूर्तमें ३७७३ श्वासोच्छ्वास होते हैं ऐसे एक श्वासमें ।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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