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________________ ११८ जैनवालवोधकअठारहवार जन्म मरन करके बहुत ही दुख भोगा। निगोदसे निकलकर फिर पृथिवीकाय, अलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, और प्रत्येक वनस्पतिकायमें एकेंद्रिय स्थावर जीव होकर नाना प्रकारके दुख बहुत काल तक भोगे । तत्पश्चात्-जिसप्रकार चिंतामणिरत्न बड़ी कठिनतासे मिलता है उसीप्रकार असपर्याय पड़ी कठिनतासे प्राप्त हुई। उस सपर्यायमें लट, विवटी.भ्रमर. वगेरहके शरीर धारण करके मरा और अनेकप्रकारके दुख सहे ॥६॥ कवहूं पचेंद्रिय पशु भयो । मनविन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी है कूर । निवल पशु हति खाये भूर ॥ कवह भाप भयो बलहीन । सवलनिकरि खायो अति दीन।। छेदन भेदन भूख पियास । भारवहन हिम आतप त्रास ॥ वघ बंधन आदिक दुख घने । कोटि जीमतें जात न भने। प्रतिसक्लेशमावत परयो । घोर शुभ्रसागग्में परयो।। देव योगसे कभी पंचेद्रिय पशु हुवा तौ मन विना निपट प्र. झानी हुवा, मनसहित सैनी पंचेंद्रिय हुवा तौ सिंह व्याघ्र प्रादि करहिंसक जीव हुआ सो अनेक निवल पशुवोंको मारकर पेट भरा। कभी स्वयं बलहीन दीन पशु हुवा तौ सकल पशुवों द्वारा साया गया इसके सिवाय छेदन, भेदन, भूख मरना, वोझा ढोना: सीत सहना, गर्मीका सहना, मारना बांधना वगेरह अनेक प्रकार के ऐसे दुख सहे जो करोड़ जीभोंसे भी वर्णन करनेमें नहि श्रावै। तत्पश्चात् संक्लेश भावोंसे मरकर घोर नरकरूपी समुद्र में जाकर
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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