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________________ ११४ जैनवालवोधकजावै उसको स्वर्गस्थ देव संवोधन करके तप ग्रहण करावे सो अव संसारके भोग बहुत भोग चुके, स्वर्गाकेसे भोग तो इस मनुष्य भवमें है ही नहीं, इसकारण इन भोगोंसे विरक्त होकरतप ग्रहण कीजिये । परन्तु सगरने यह स्वीकार नहिं किया । देवने अनेक यत्न किये परन्तु समय निष्फल हुये दूसरी बार मणिकंतु देव चारण मुनिका रूप धरकर सगरके यहां आया और बहुत कुछ समझाया परंतु पुत्रादिकोंके मोहमें मग्न हुये सगरचक्र. वर्तीने गृस्थावस्था नहिं छोड़ी। सगरके साठ हजार पुत्रोंने एक दिन अपने पितासे कहाकि हम सब जवान हो गये, हमारे लिये किसी भी प्रसाध्य कार्यकी आक्षा दें तो हम वह साध लावें । चक्रवर्तीने कहा कि-पृथिवी तो हमने जीत ली है अब कोई कार्य नहीं है, इसलिये तुम लीग खाओ पीओ और संसारके सुख भोगी। उसवक्त तो सब कुंअर चले गये परंतु कुछ दिनों बाद फिर वही प्रार्थना की कि-हमें कुछ काम बताइये, तव चक्रवर्तीने कहा कि कैलास पर्वतपर भरत महाराजने ७२ जिनमंदिर बनवाये हैं आगे निकृष्ट काल आता है सो उनकी रक्षाके लिये तुम लोग ऐसा करो कि- कैलास पर्वतके चारों तरफ खाई खोदकर उसमें गंगाकी नहर लाकर भरदो । तव समस्त पुत्र आक्षा शिरोधारण कर कैलासपर गये और दंडरत्नकी सहायतासे कैलासके चारों तरफ खाई खोदकर गगाके प्रवाहसे भर दिया। इसी समय उपर्युक्त सगरके मित्र मणिकेतु देवने अपने
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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