________________
चतुर्थ भाग ।
११३
को यशः कीर्ति नामकर्म कहते हैं ।
८७ | जिस कर्मके उदयसे जीवकी प्रशंसा न हो उसे श्रयश:
कीर्ति नामकर्म कहते हैं।
तीर्थकर भगवानके पदके कारणभूत कर्मको तीर्थकर नाम कर्म कहते है |
३२. सगर चक्रवर्त्ती और भगीरथ महाराज ।
፡
1
भगवान अजितनाथक समयमें इक्ष्वाकुवंशमें दूसरे चक्रवर्ती महाराज सगर हुये । इनके पिताका नाम समुद्र विजय, माताका नाम सुवाला था । इनकी प्रायु सत्तर लाख पूर्वको और शरीर साढ़े चार सौ धनुष ऊंचा था, ये अठारह लाख पूर्वतक महामंडलेश्वर राजा थे । इसके बाद इनकी आयुधशाला में चक्ररल को उत्पत्ति हुई तब छहों खंडोंको विजय करके चक्रवर्ती हो गये ।
प्रथम भरत चक्र के समान इनके यहां भी चौदह रत्न नवनिधि ६६ हजार स्त्रिय वगेरह समस्त संपदायें पकसी थीं, इनके साठ हजार पुत्र थे ।
एक दिन श्रीचतुर्मुख नामक केवलज्ञानधारीके ज्ञान कल्याके उत्सव स्वर्गो देव श्राये और सगर भी गया था तो उन देवोंमें सगरचक्रवर्तीका एक मित्र मणिकेतु नामका देव था, उसने सगर महाराज से प्रार्थना की कि जब तुम स्वर्गमें थे तव तुमने हमने प्रतिक्षा की थी कि दोनोंमेंसे जो कोई प्रथम मनुष्य भवमें
--