SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७२ . जैनवालवोधकअतिशय दुःखी हो गये, तव एकदिन उन्होंने विचार किया कि, इस रोगणीड़ित अवस्थासे न तो मैं अपना हो कल्याण कर सकता हूं और न जिनशासनका ही उपकार कर सकता हूं. इस कारण सवसे पहिले जिसप्रकार बने. इस रोगको दूर करना चाहिये । शरीर रहेगा तो फिरसे मुनि होकर मैं सब कुछ कर सकूगा परन्तु शरीर नष्ट हो गया तो उभयतः भ्रष्ट हो जाऊंगा। ऐसा विचारकरके अन्तमें यह निश्चय किया कि, इस भेषको छोड़कर कोई ऐसा भेष धारण करना चाहिये, जिससे उत्तमोत्तम गरिष्ठ भोज्य पदार्थ खानेको मिले। लाचार कांची देशको छोड़कर वे उत्तरकी तरफ पुंडूनगरमें बौद्धोंकी आहार दानशाला थी, सो वहां बौद्धसाधुका मेप धारण करके रहने लगे परन्तु यहां पर भी पूरा आहार न मिलनेसे रोगको उपशान्ति न हुई, तव वहांसे निकलकर और भी उत्तरकी तरफ चले. और कितने ही दिनोंमें दशपुर नगरमें आये जिसको हालमें मन्दसौर कहते हैं । यहां पर शैवलोगोंका वडा प्रताप था। शिवधर्मी साधु सन्यासियोंको उत्तमोत्तम भोजनोंसे संतुष्ट करनेके अनेक स्थान थे। सो यहां प्राकर वे शिवलिंगी सन्यासी हो गये । अनेक दिन रहनेपर भी जब भस्मक व्याधि दूर न हुई, तब यहांसे भी निकलकर वे वाराणसी नगरीमें पहुंचे। . . . .: बाराणसीमें उस.समय शिवकोटी नामक राजाका राज्य था शिवकोटी महाराजके बनाये हुए विशाल शिवमंदिरमें नित्य ही अठारह प्रकारके मिष्ट पदार्थोसे भोग लगता था, सो इस मंदिर; को देखकर विचार किया कि, यदि इस मंदिरमें प्रवेश हो जाये.
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy