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चतुर्थ भाग.!
:२३ तो मेरा महा क्षुधारोंग दूर हो सकता है। लाचारा उन्होंने योग्य शैवका भेष बनाकर अर्थात् शिवभक बनकर उस मंदिरमें प्रवेश ‘किया और शिवनिर्माल्यको मंदिरसे बाहर फेंका हुआ देखकर वहांके पुजारियोंसे कहां कि, यहाँ पर कोई भी ऐसा समर्थ नहीं हैं, जो भगवान्को आह्वान करके इन उत्तमोत्तम पदार्थोंका भोजन करा दे ? इस प्रकार सुनकर पुजारियोंने कहा कि तुम्हारेमें ऐसी सामर्थ है. जो ऐसा कहते हो? समन्तभद्रस्वामीने कहा कि "वेशक मैं अपनी भक्तिसे भगवान्को इस मंदिरमें अवतरण कराकें सब नैवैद्यका भोग लगा सकता हूं."
पुजारियोंने यह बात राजाके कानोंतक पहुंचाई, तो राजाने उस दिन और स्त्रियोंसे उत्तमोत्तम मिठाई बनवाकर उस योगीसे कहा कि आप इन पदार्थोंका भगवान्के भोग लगाइये अर्याद भगवानको अवतरण करा खिला दीजिये। - तब योगिराजने पहिले मंदिरको धुलवाकर पवित्र करवाया और सब नैवेद्य मंदिरमें लेजाकर भीतरसे द्वार बंद कर दिया
और सव नैवेद्य स्वयं खा लिया। पश्चात् दरवाजा खोलकर .. सबको बतादिया कि देखो ! भगवान् श्राकर सब नैवेद्य खा गये।
सक्ने आश्चर्य किया और समझ लिया कि वेशक भगवान् पाये थे, अन्यथा इतना नैवेद्य कहां जाता। मनुम्यकी, सामर्थ्य नहीं कि, इतना नैवेद्य खा जाये । तब शिवकोटि महाराजने समन्त..भद्रस्वामीको यहाँका पुजारी नियत कर दिया और नित्य उत्तमो
सम-पदार्थ एनवाकर भेजना.प्रारंभ कर दिया सोयोगिराज द्वार
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