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चतुर्थ भाग । " अपने प्रिय पतिके परम मंगलकारक शब्द सुनप्रियकारिणीका हृदयकमल प्रफुल्लित हो गया। शरीर रोमांचित हो पाया आंख में आनंदके प्रश्रुपात भर आए । आषाढ़ सुदी ६ उत्तरापाड़ नक्षत्र में श्रीवीरस्वामीका जीव सोलहवें अच्युतस्वर्गमें देव पर्यायको समाप्त कर, माता प्रियकारिणीके गर्ममें आया जैसे सीपके भीतर जलविंदु रहता है इस तरह गर्भ में रहते हुये माताको कुछ भी दुःख न हुआ।
जिस समय यह पुण्याधिकारी गर्भ में थे। देवियां माताकी सेवा करती थी तथा नानाप्रकार सुन्दर कथाओंसे माताकों प्रसन्न करती व प्रभ करके उत्तर लेती थीं। हजारों मनोहर' सवालोंके जवाय माता अपने ज्ञानयलसे तुरंत देती थी। इसीके प्रमाणमें दो श्लोक दिये जाते हैं
कि ध्येयं धीमतां लोके ध्यानं च परमेष्टिनां। . जिनागमं स्वतत्वं वा धर्म्य शुक्लं न चापरं ॥ २७॥
के चौराः दुर्द्धराः पुसां धर्मरत्नापहारिणः । ।
पंचाक्षाः पापकारः सर्वानर्थविधायिनः ॥ ५० ॥ . भावार्थ:-प्रश्न-इस लोकमें ध्यान करने योग्य क्या है ? उत्तर पंच परमेष्ठीका ध्यान, जिनागम, श्रात्मतत्व व धर्मध्यान तथा शुक्लल्यान, अन्य नहीं। मनुष्योंके सबसे भारी चोर कौन हैउत्तर-धर्मरूपी रलके हरनेवाले व सर्व प्रकार अनर्थ के कर्ता, पाप . के कारण पंचेन्द्रियों के विषय हैं । इस प्रकार सहजहीअनुमान १ मासके पूर्ण हुए और परम शोभित प्रसूति-गृहमें मिती: चैत्र