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जैनबालबोधक
सुदी १३ के दिन श्रीतीर्थकर महाराजका जन्म हुआ । सुत्रर्ण रंग धारी, परम दीप्तिमान, वज्र के समान हड्डी, वेटन और कोलोंको रखनेवाले परम सुडौल सांचेमें ढले कांतियुक्तशरीर पूर्व दिशामें सूर्योदय के समान गर्न स्थानसे उदय हुये । उसी समय इन्द्र देवों की सेना ले भक्तिके अर्थ आया और श्रीमहावीरस्वामीको पेरा.. वत हस्ती पर विराजमान कर सुमेरु पर्वत पर ले गया। वहां उसने क्षीरसमुद्र के निर्मल जलसे स्नान कराया और बड़ा भारी उत्सव किया । तथा वालकका नाम वीर और वर्द्धमान रक्खा गया । अर्थात्- कर्मरूपी शत्रुओंको नाश करेगा इसलिये वीर तथा गुणोंकी वृद्धिका श्राश्रय होनेसे श्रीवर्द्धमान नाम रक्खा ।
इन्द्रने सुमेरुसे ला मातापिताकी गोद में प्रफुल्लित वदन बालकको सौंपा तब माताने जन्मोत्सव किया-बहुत दान दिया ।
महावीर बाल्यवस्थामें रंजित मुख चंद्रके समान अन्य निजवयस्क राजपुत्रोंके साथ क्रीड़ा करते चढ़ते हुये । जैसे और बालकों को पांच वर्षकी उम्र में अक्षर प्रारंभ और आठ वर्षकी उम्र में गुरु के पास उपासकाध्ययनादि ग्रंथ पढने पड़ते हैं । उस तरह विद्या पढनेकी श्रीमहावीर बालकको कोई जरूरत नहीं हुई थी क्योंकि पूर्व संस्कार के बलले श्रीमहावीर जन्मसे ही मति श्रुत तथा अवधि इन तीन ज्ञानके धारी थे, जिससे उनके मानके बाहर कोई शास्त्रीय विद्यां ऐसी न थी. जिसे वह पढकर जानें। इससे वे किसीके शिष्य नहीं हुए। जन्महीसे सम्यक्त्वके धारी थे। इससे आत्मा और परका मेदविज्ञान विद्यमान था। अपने आत्माको शुद्ध निश्चय से परमानंदमय ज्ञाता दृष्टा अनुभव करते थे तथा प्रतींद्रियं व
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