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चतुर्थ भाग । स्वाधीन आनंदको ही सुख निश्चय करते थे। इसी कारण पाठ वर्षकी ही उम्रमें स्वामीने गृहस्य योग्य द्वादशवत अपने आप धारण कर लिये और तवसे श्रावक धर्मको पालने लगे। ___ श्रीमहावीर कुमार अवस्थाहीमें बड़े वीर निर्भय और साहसी थे। एक दफे सौधर्म इन्द्रने अपनी सभामें स्वामीके बलकी प्रशंसा की। संगम नामक एक देवको विश्वास न हुआ। वह परीक्षा करनेके लिये एक बड़े भारी काले नागके रूपमें पाया और जहां राजकुमारों के साथ श्रीमहावीर खेल रहे थे, वहां जाकर जिस वृक्षपर वुमार चढ़े थे उसको लिपट गया । अन्य सव राजकुमार भयभीत हो वृक्षसे फूद कर भागे परंतु चीर कुमारको कुछ भी भय न हुश्रा, किंतु उस सर्पको पकड़ कर उसके साथ तरह २ की क्रीड़ा करने लगे। इनके इस तरहके चलको देख वह देव अति प्रसन्न हुश्रा और बहुत भांति स्तुति कर स्वर्गलोक गया ।
लल्यपत्व और व्रतकी महिमासे पूर्ण उदासोनचित्त महाचीरका मन गृहजालमें उसी तरह ठहरता हुआ जिस तरह एक कमलका पुप्प सरोवर में ठहरता है। सामायिकद्वारा नित्य सिद्धोंका ध्यान करते, वे प्रात्म-अनुभव करते व गृहस्थावस्थामें माता व कुटुंवियोंको आनंदित करते व राज्यकार्य देखते व मित्रोंसे उत्तम गोष्ठी करते हुये स्वामीने ३० वर्ष विता दिये और विवाह करनेकी और विल्कुल ध्यान नहीं दिया। कुमार अवस्थाहीमें पवित्र जीवन विताया ।
एक दिन काललब्धि श्राने और चारित्र मोहनीय कर्मके विशेष क्षयोपशम होनेपर श्रीमहावीरस्वामी स्वयं. विचार