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चतुर्थ भाग ।
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मुनि प्राण त्याग करके तेरहवें स्वर्गमें इन्द्र हुये। वहां पर वह नानाप्रकार के सुख भोगने लगा । परंतु अंतःकरणमें उन सब भोगों को मोक्षसुखके सामने तुच्छ मानता था। वहां से मेरु परके तथा नंदीश्वरद्वीप के अकृत्रिम चैत्यालयोंके दर्शन पूजनके लिये नित्यप्रति जाया करता था । स्वर्गस्थ सभाके सम्यग्दर्शनरहित देवों को उपदेश देकर उन्हें सम्यक्त्व ग्रहणा कराता था । इस प्रकार वीस सागर पर्यंत आयु उसने सुखसे वितादी ।
जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रके काशी देशमें बनारस नामका नगर है । वहां पर विश्वसेन नामका राजा राज्य करता था। वह काश्यप गोत्र और ईश्याकुशी था। उसके मति श्रुत और अवधि तीन ज्ञान थे। उसकी पट्टरानी चामादेवी बड़ी सुंदर पतिव्रता श्री । ये दोनों तीर्थकरके माता पिता होनेवाले थे इस कारण इनके मलसूत्र नहि होता था ।
एक दिन सौधर्मेन्द्र कुवेरको बुलाकर आशा दी कि तेरहवे आनंत स्वर्गके इंद्रकी व दहमहीने प्रायु शेष रही है। वह वहां से चयकर भरत क्षेत्र में तेईसवें तीर्थकर होंगे । इसलिये बनारस नगर में विश्वसेन राजाके घर पर पंचाश्चर्यवृष्टि करना चाहिये । इन्द्रकी ऐसी प्राशा होते ही कुबेरने तीर्थकर के पिता विश्वसेन राजाके घरपर नानाप्रकारके रत्नोंकी वृष्टिकी । प्रति-दिन साढ़े तीन करोड़ रत्नोंकी वृष्टि होती थी। इसके सिवा कल्पवृत्तों के पुष्पोंकी वृष्टि, गधोदककी वृष्टि होती थी और दुर्दुभि बजते थेऔर आकाश से देव जय जय शब्द करते थे । इस प्रकार छहमहीने तक पंचाश्चर्य होते रहे जिनको देखकर अनेक प्रजैन जैनधर्मावलंबी हो गये थे ।