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जनवालबोधकएक दिन राजा आनंद कुमार सभामें बैठा था सो दर्पणमें मुख देखनेसे उसके शिर पर एक सफेद वाल हष्टिगोचर हुआ। उसे देखते ही उसके मनमें वैराग्य उत्पन्न हो गया और अपने पुत्रको राज्य देकर सागरदत्त मुनिके पास दिदावरी दीक्षा ग्रहण की। महाव्रत धारण करके चारह प्रकारके तप करने लगा। उसी मुनि अवस्थामें आनंद कुमार मुनिने सोलह कारण भावनाओंका चितवन प्रारंभ किया जिससे तीर्थकर प्रकृतिका बंध हुआ। तपश्चरणके प्रभावसे उसे नानाप्रकारको मृद्धियें प्राप्त हुई। जिस धनमें इन्होंने योग धारणा किया था उस बनके समस्त दुख नए हो गये। सूखे हुये सरोवर पानी भर गये, समस्त ऋतुओं के फल फूल वृक्षों पर दीखने लगे। सिंह वगेरह जातिवैरी जीव अपना बैर छोड़कर हिरण वगेरह सब जीवोंसे पार करने लगे। सांप मयूर, मूसे विलाई वगैरह आपसमें प्रीनिसे खेलने लगे। मुनि भी सवसे मैत्रीभाव धारण करके आत्मध्यानमें लीन हो गये।
एक दिन मुनिमहाराज ध्यानमें बैठे थे। वह पापी कमठका जीच नर्कमें नानाप्रकारके दुख भोगकर मरा लो इसी वनमें आकर सिंह हुवा था तो उसने अानंदकुमार मुनिको देखा . और पूर्वजन्मका वैर याद आनेसे क्रोधित हो मुनिके कंठ जा दवाये। अपने तीक्ष्ण नखोंसे मुनिका सर्व शरीर विदारण करके पंजोंसे टुकड़े २ कर डाले और उन्हें खाडाला । मुनिने ये सब कष्ट साम्य भावोंसे सह लिये, मनमें रंच मात्र भी क्रोध नहि श्राने दिया, उत्तम क्षमा भाव धारण कर लिया.पेसी अवस्थामें