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________________ चतुर्थ भाग । २०१. इन तीनों ही जीवोंने अपने २ परिणामोंके अनुसार फल पाया। वह व्यभिचारी तौ मरकर नरक गया, कुत्तेको सुधारोग लग गया कितना ही खावै तो उसकी भूख न जावे। और मुनि महाराज. - मरकर स्वर्ग गये। इसी प्रकार यह प्रचेतन जिनप्रतिमा भी कार्य - कारण संबंधसे अपने परिणामोंको शुभ कर देनेके कारण पुण्यप्रदान करती है और पुरायसे स्वर्गके सुख व परंपरा मोक्षका कारण बन जाती है । इस प्रकार विद्वान् लोग समझते हैं सो. - इसमें कुछ भी असत्य वा शंका नहीं है। इस प्रकार मुनिमहाराज के मुख से प्रतिमा पूजाका सविस्तर व्याख्यान सुनकर मूर्तिपूजा -के विषयमें निःसंदेह हो गया । इसी प्रसंग में मुनिराजने तीन लोकसंबंधी कृत्रिम चैत्यालयों · का वर्णन भी किया था उनमेंसे सूर्यके विमान के प्रकृत्रिम जिन-मंदिर का वर्णन कुछ विशेषतासे किया था उसे सुनकर राजाको - मनमें बड़ा भारी हर्ष हुआ। उस दिनसे राजा ध्यानंद कुमार -सवेरे संध्याको महलको छत पर चढ कर सूर्य विमानमें स्थित जिनमंदिर व जिनप्रतिमाओंको अर्घ देने लगा और जिनप्रतिमा - का ध्यान करने लगा । सूर्य विमान बनवा कर उसमें एक जिन. मंदिर बनवाया और नित्यप्रति उस मंदिरमें पूजन करता रहा । इसप्रकार नित्य नियमकरनेसे नगरके लोग भी 'यथा राजा तथा 'प्रजा' की नीति से प्रतिदिन सूर्यको नमस्कार करने लगे और अर्ध देने लगे उसी दिन से इस भरत क्षेत्रमें सूर्यको उपासना प्रचलित हो गई और अब उसका स्वरूप और अभिप्राय भो अन्यमती विद्वानों ने बदल दिया ।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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