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जेनबालबोधक। तत्पश्चात् विघ्नं टल जाने पर अकलंकदेव नालावसे निकले और विद्वान् भ्रातृवियोगका दुःख छोडकर अपने देशको न जा कर अनेक देशोंमें धर्मोपदेश करते हुए विचरने लगे। उनकी 'विद्यापयो मूर्ति और लोकोपकारार्थ प्रानन्दसे मांगते हुए महा. • परिश्रमको देखकर सब लोग उनको देवतुल्य समझते थे। - एक समय अकलंकदेव विहार करते २ कांची देशमें रब• संचयपुरके निम्टवर्ती वनमें आकर ठहरे। उस नगरमें उस • समय हिमशीतल नामक बौद्धधमी राजाका राज्य था, किन्तु उसकी प्रियतमा पट्टराणी मदनसुंदरी जिनमत थी।
जिस समय अकलंकदेव उस नगरके समीपवर्ती वनमें प्राये थे, उसी दिन फाल्गुन शुक्ला अष्टमीको नदीम्बर पर्वक महोत्म्वका प्रारंभ था, सो मदनसुंदरी राणीने जिनेन्द्र भगवान्
की रथयात्राका उत्सवपूर्वकमहान् पूजन विधानका प्रारंभ किया ' था। परंतु राजगुरु संघश्री वौद्ध साधुने राजासे कहकर रय. यात्राके उत्सवको अटका दिया और मदनसुंदरीको कहला मेला कि-"जस्तकासंघश्रीको वादविवादमें कोई जैनी विद्वान् नहि 'जीत लेगा, तबतक जिनेन्द्रका रथ इस नगरमें नहीं चल सकना तव मदनसुंदरी सचिंत हो सव मंदिरोंमें गई, परन्तु उस समय कहीं पर भी संघधीको जीतनेवाले किसी विद्वान् चा मुनिके दर्शन नहीं हुए । तर निरूपाय होकर उसने जिनेन्द्र भगवानके • सम्मुख प्रतिज्ञा की कि “जब तक जिनरथयात्रा निविधताके
साथ न होगी, तब तक मेरे प्रमजल ग्रहण करनेका त्याग" इस प्रकार प्रतिमा करके वह जिनन्द्र भगवादकेसम्ममीठ