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चतुर्थ भाग ।
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- कर महामंत्र का जाप करते २ ध्यानमें मग्न हो गई। उसी रात्रिको चक्रेश्वरी देवीका आसन कम्पायमान हुआ और तत्काल ही उसने रानीके पास आकर उसे सूचना दी कि, "हे मदनसुंदरी ! तू चिंता मत कर, प्रातःकाल ही इस नगरके समीप पूर्वकी तरफ अनेक शिष्यसहित अकलंकदेव पधारेंगे, सो वे धर्मसम्बन्धी वाद विवाद करके तेरा मनोरथ पूर्ण करेंगे। यह सूचना पाकर रानी प्रातःकाल ही पूर्वकी तरफ गई तो अकलंकदेवके पवित्र दर्शन हुए और प्रार्थना करके आनदोत्साह के साथ नगरके मंदिरमें ले आई. और रयके पटकानेका वृत्तांत - सुनते ही अकलंकदेवने राजसभामें जाकर त्वरित ही संघीको बादमें परास्त करके गर्वरहित किया । परन्तु उस सभा के समस्त सभासद विद्वान् वौद्धधर्मावलंबी होनेसे पक्षपातपूर्वक वाले कि, अभी वाद समाप्त नहीं हुआ है, कल फिर भी याद होना चाहिये | अकलंकदेवने कहा कि- 'बहुत ठीक एक दिन हो नहीं -बल कि, छह महीने तक मैं वाद करनेको तैयार हूं।'
तत्पश्चात् दूसरे दिन संघधीने अपने मतकी तारादेवीकी श्राराधना करके उसको परदेके भीतर एक मट्टीके घड़े में स्था'पन किया और तारादेवीने संघधीको वोली बनाकर अकलंकदेवसे याद करना स्वीकार किया। इसकारण संघधीने भी वहीं बैठकर वादको सूचना दी कि मैं परदेमें बैठकर वाद करूंगा । कलंक 'देवने 'तथास्तु' कहकर याद करना प्रारंभ किया । परमेंसे तारादेवी प्रश्न करती थी, उन सबका उत्तर और खंडन अकलंकदेव वरावर करते जाते थे और जिनमतकी जय होती
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