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जैनवालवांधक'कर संधि करना चाहा परंतु रामने सीताके सिवाय हमें कुछ नहि
चाहिये ऐसा कहकर दूतको लोटा दिया । तब रावणने युद्धसे “पहिले महुरूपिणी विद्या शांतिनाथके मंदिरमें बैठकर साध ली तव सीताके पास जाकर उसे राजी होनेको बहुत कुछ समझाया। परंतु एक न मानी। शेपमें रावणले वोली कि-श्रीराम यदि तेरे 'हाथसे मारे ही जांय नौ मरनेसे पहिले इतना अवश्य कह देना कि-"शोक है ! तुमारी प्यारी सीता अंत समयमें तुमारे दर्शन न कर सकी। अब तुमारे मरणको सुनते ही वह भी अवश्य प्राण त्याग देगी।" इतना कहकर सीता वेहोश हो गई । रावणने सीताकी यह दृढ़ता देखकर निश्चय कर लिया कि यह मुझे कदापि न चाहेगी। शोक है कि-संसारमें कलंकका टीका (पर स्त्री हरणका लगा, कुलको कलंकित किया और सीता भी न मिली, वंशमर्यादाको नष्ट किया, भाई वन्धुओंको भी हाथमे खो बैठा, मित्रोंको शत्रु बना लिया, इत्यादि विचार करके मंदोदरीके महलमें गया और कहने लगा कि-याज न जाने युद्धसे बच. कर आऊं ग न आऊं श्रतएव यह अंतिम भेट है जीता रहा तो श्रा मिलूंगा । इस प्रकार कहकर फिर युद्ध में चल दिया।
रावणके गिरते ही उसकी सेना तितर बितर हो गई । राव. 'णका पराजय हुमा । विभीषणने रावणके शोकमें अपधात कर प्राण तजना चाहा परंतु राम लक्ष्मणने समझाकर शोक शांत किया और पद्मसरोवरके तटपर सुगंधित.द्रव्योंसे रावणका शव दाह किया । तथा रावणके भाई कुंभकरण इंद्रजीत आदिको छोड दिया। रावणके मरणसे इन लोगोंके परिणाम संसार