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जैनवालवोधकतव दशरथने कहा-इसमें क्या संदेह है ? तूने वरकी धरोहर हमारे पास रक्खी थी सो ले ले, मुझे स्वीकार है ।मैं ऋणरहित हो गया। . ... तत्पश्चात् रामचंद्र लक्ष्मणको बुलाकर कहा कि यह केकई
अनेक कलाकी पारगामी है। मुझे घोर युद्धमें इसने रथ चलाकर जिताया या बचाया था सो मैंने प्रसन्न होकर इसे वर दिया था। वह वर मेरे पास धरोहर रक्खा था सो आज यह कहती है किमेरे पुत्रको राज दीजिये । सो इसके पुत्रको राज न दूं तो इसका पुत्र संसारका त्याग करता है यह पुत्रके शोकसे प्राण तज देगी
और मेरे वचन चूकनेकी अपकीर्ति जगतमें विस्तरेगी। और यह कार्य नीतिसे विरुद्ध दीखता है कि बड़े पुत्रको छोड़कर छोटे पुत्रको राजदेना । और भरतको समस्त पृथिवीका राज्य दे दिया जाय तो फिर तुम लक्ष्मण सहित कहां रहोगे तुम दोनों भाई परम क्षत्रिय तेजके धरनहारे हो ! सो वत्स ! मैं अब क्या करू ? दोनों ही कठिन कार्य है ।मैं अत्यंत दुःखरूप चिंताके सागर में हूं। तव श्रीरामचंद्र पिताके चरणकमलोंमें दृष्टि रखते हुये विनयके साथ बोले कि-पिताजी! आप अपने वचनका पालन करें हमारी चिंता छोड़ दें। जो आपके वचन चूकनेकी अपकीर्ति हो और हमारे इंद्रकी संपदा आवै तो किस काम की ? जो सुपुत्र हैं वे ऐसा ही कार्य करते हैं, जिससे माता पिताको रंचमात्र भी खेद न हो। पुत्रका यही पुत्रपना है, नीतिके पंडितजन यही कहते हैं कि-जो पिताको पवित्र करै वा कष्टसे रक्षा