SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करे वही पुत्र सम्मुख करें। चतुर्थ भाग ' १३३ है । पवित्र करना यही है कि-पिताको धर्मके इस प्रकार दशरथ और राम लक्ष्मणके वार्तालाप होता था कि इसी बीचमें भरत महलसे उतरा और "मैं तो मुनिव्रत धारणा करके कर्मोंको काटूंगा " ऐसा कहकर चलनेको उद्यत हुआ तव सब लोगोंने " हैं ! हैं !! यह क्या करते हैं " ऐसा शब्द किया / तव पिताने विह्वल चित्त होकर बनमें जाते हुये भरतको रोका और गोद में लेकर हृदयसे लगाकर प्यारसे मुखचुम्बन करके कहा- ' हे वत्स ! कुछ दिन राज्य करो, यह नवीन वयस है वृद्धावस्था में तप धारण करना । तव भरतने कही पिताजी ! यह मृत्यु है सो बालक वृद्ध तरुणको नहीं देखती, न मालूम कव आ जाय आप वृथा ही मुझे मोहमें क्यों फँसाते हैं ? तब पिता ने कहा- हे पुत्र ! गृहस्थाश्रममें भी धर्मसंग्रह हो सकता है । कायर पुरुष ही धर्मसे रहित होते हैं । तब भरतने कहा कि - "हे नाथ! इंद्रियों के वशीभूत काम क्रोधादिसे गृहस्थों को मुक्ति कहाँ " । तब महा राजने कहा कि- " हे भरत ! मुनियों को भी तद्भव मुक्ति नहीं होती इस कारण तुम कुछ दिन गृहस्थ धर्म ही धारण करके रहो । तब भरतने कहा कि - हे देव आपने कहा सो सत्य है परंतु गृहस्थों को तौ नियमसे मुक्ति नहिं होती, मुनियोंमें किसीको होती है किसीको नहीं। गृहस्थपदसे परंपरा मुक्ति होती है साक्षात् नहि होती । इस कारण होनशक्तिवालोंके लिये ही गृहस्थाचार है । मुझे इसकी रुचि नहीं है, मैं तौ महाव्रत धारण करनेका ही
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy