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________________ चतुर्थ भांग। एक दिन राजा दशरथने सर्वभूतहित मुनि महाराजसे अपने पूर्वभव पूछे सो सुनकर वैराग्यको प्राप्त हुवा । मंत्रियोंको बुला कर कहा कि मैं अब जिनदीक्षा ग्रहण करूंगा सो मंत्री श्रादि सवही यह बात सुनकर उदासीन हो गये । भरतने सुनकर वडा 'आनन्द माना और पिताके साथ मैं भी मुनिदीक्षा धारण करूंगा ऐसा प्रगट किया। चारों रानियां भी बड़ी उदासीन हुई विशेष कर केकईने विचारा कि पति और पुत्र दोनों ही दीक्षा लेनेको 'उद्यमी हो गये अव मेरा जीना कैसे होगा फिर अपने वरकी याद आई तब महाराजके पास जाकर विनयपूर्वक बोली-कि महाराज! आपने समस्त स्त्रियोंके सम्मुख वर देनेको कहा था। वह मेरा जमा है सो अाज मुझे देवो । तव दशरथने कहा किजो तुमारी इच्छा हो सो मांग लो। तव रानी केकई अांसुडारती 'हुई कहने लगी कि हमने क्या अपराध किया है जो हम लोगों "पर कठोरचित्त होकर हम लोगों को छोड़ना चाहते हो। हम तौ - आपके श्राधीन हैं। यह जिनदीक्षा बड़ी दुर्द्धर है उसे धारण करनेको कैसे यह मति हो गई, ये इन्द्रसमान भोग इनमें मग्न रहते थे सो यह आपका कोमल शरीर किस प्रकार विषम मुनिबत पाल सकेगा इत्यादि बहुत कुछ कहा। तब महाराजने कहा कि समयको कुछ भी विषम नहीं है। मैं अवश्य ही मुनिव्रत धरूंगा 'तेरे जो अभिलापा हो सो मांग ले। तब रानी चिंतावान हो नीचे मुंहकरके कहती हुई कि-हे नाथ! मेरे पुत्र भरतको राज्य दीजिये।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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