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जैनवालबोधक
दासियों सहित झरोखेमें बैठी थी। पवनंजय अंजनाके रूपको 'देखकर संतुष्ट हुआ। किंतु उस समय वसंततिलकाने पवनंजय 'के साथ पाणिग्रहण होनेके कारण अंजनाके भाग्यको सराहा । परन्तु दूसरी दासीने पवनंजयकी निंदा करके उसे अयोग्य वर -ठहराया और कहा- इसकी जगह यदि विद्युत्प्रभके साथ विवाह होता तो अच्छा था । पवनंजयको यह सुन कर क्रोध आगया कि - यह नालायक मेरी निन्दा कर रही है और यह चुपचाप सुन रही है । सो इन दोनों को ही मारनेके लिये जाने लगा । प्रहस्तने समझा कर ठण्डा तो किया परंतु डेरे पर आते ही अपने जानेका प्रबंध करने लगा । पिता और श्वशुरने बहुत समझाया तो विवाह करके हो उसे दण्ड देना ठीक है ऐसा मनमें विचार कर विवाह करने पर राजी हो गया । मानसरोवर पर विवाह हो गया । विवाहके बाद पवनंजयने अपनी प्रतिज्ञानुसार उसके महल जानेका व किसी प्रकार के सम्वन्ध रखने का सर्वथा त्यागकर दिया । अंजना पतिको अप्रस नासे वहुत ही दुःखी हो गई । वह महासती पतिव्रता इस दुःखके कारण इतनी दुर्बल हो गई कि पतिका चित्र बनाते समय हाथ में लेखनीको स्थिर नहिं रख सकती थी ।
कितने ही वर्षोंके बाद एकवार रावण और वरुणमें युद्ध उन गया था । राजा महेंद्र रावणके अधीन राजा था सो उसने युद्ध में सहायता देनेके लिये इसको भी बुलाया । इस युद्ध में राजा प्रह्लाद जाते थे परंतु पवनंजयने कहा कि मेरे रहते आपका -जाना ठीक नहीं । विशेष प्रार्थनासे प्रह्लादने पवनंजयको भेजना