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जैनघालवोधकसन पर उच्च विराजे । भगवत्के दर्शनार्थ विदेह देशमें प्रसिद्ध इन्द्रभूति, वायुभूति, अग्निभूति, नामके बड़े दिग्गज ब्राह्मण पंडिट अपने सैकडों शिष्योंको लेकर आये और प्रभुके शिष्य (जैन) हो गये । श्रीप्रभुके शिप्य २८००० मुनि और ३६००० अर्जिकाएं तथा एकलाख श्रावक व तीन लाख श्राविकाएं थीं। इन सबमें मुख्य इन्द्रभूति हुये जिनका प्रसिद्ध नाम गौतमस्वामी था तथा सुधर्माचार्य, वायुभूति अग्निभूति श्रादि २१ गणधर हुये । वहुतसे मुनियों के संघोंके स्वामीको गणधर कहते हैं। तथा अजिकाओंमें मुख्यसती चंदना हुई । श्रीभगवानका दिव्य उपदेश जीवोंके पुराव के उदयसे दिनरातमें चार बार छः २ घडीके लिये धाराप्रवाही मेघकी ध्वनिके समान होता था । इस उपदेशको मनुष्य, स्त्री, पशु, देव, देवी, समस्त १२ सभाओंमें बैठकर अपनी अपनी भाषासे सुनते थे । श्रोताओंमें मुख्य राजगृह नगरका स्वामी राजा श्रेणिक था। प्रभुने ३० वर्ष तक अनेक देशोंमें इसी तरह धर्मोपदेश करते हुये विहार किया और सव जगहोंने हिंसाका प्रचार बन्द कराया।
अनेकोंने मिथ्यात्व त्यागा और सम्यग्ज्ञानका लाभ किया । प्रभुकी दिव्यध्वनिमें जो सारगर्भित उपदेश हुआ था। उसको गौतमस्वामी गणधरने प्राचारांग आदि द्वादश प्रकारके महान ग्रंथों में रचा । उन्हींका कुछ अंश प्राधुनिक प्राप्त ग्रंथोंमें उपसन्ध हैं । श्रीप्रभु कार्तिक वदी अमावस्याके प्रातः काल विहार देशके पावापुरीके वनसे शुक्लध्यान द्वारा अघातिया कर्मोंका नाश कर मुक्तिधाममें चले गये । अपने साध्यकी सिद्धि करके परमात्मपद