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चतुर्थ भाग ।
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दिया और नित्य प्रति दले हुये कोदों व जलही भोजनको भेजना शुरू किया। वह श्राविकाके पट् कर्म देवपूजा गुरु उपास्ति स्त्रान्याय, संयम तप और दानमें चतुर थी। दान देनेके अर्थ निय - मध्याह्न कालके पूर्व द्वारापेक्षण करती थी। पुण्ययोगसे श्रीवर्द्ध-मान स्वामी उधर ही आ निकले । सतीने अति नम्र हो आहार 'पानी शुद्ध 'प्रत्र तिष्ठ तिष्ठ तिष्ठ ' तीन बार कहा । स्वामी उसी ओर बढे, आंगण में गये । सतीने नवधाभक्ति सहित उसी कोदों 'और जलका आहार स्वामीको दिया | स्वामीके पुग्यके प्रतापसे. कोदों के पुल खीरके रूपमें परिणत होगये ।
निरन्तराय थाहार होनेसे देवोंने रत्नादिकी वृष्टि की। सती चंदनाके दानकी प्रति महिमा विस्तरी । उसने श्राजन्म कुमारिका रहनेका निश्चय किया । श्रीवर्द्धमानस्वामीने इस तरह - ध्यानका अभ्यास करते हुये १२ वर्ष पूर्ण किये ।
तत्पश्चात् विहार करते हुए प्रभु मिती वैशाखशुक्ल १० अप-राहके समय जंभिका ग्राम के बाहर ऋजुकूला नदीके तट पर - शालभू वृक्षके नीचे ध्याकर ध्यानमें मग्न हो गये । छठे, सातवें 'गुणस्थानसे सातिशय अप्रमत्त हो क्षपकश्रेणी चढे | अंतर्मुहूर्त्त ' में आठवे, नवमें, १० वे गुणस्थान चढ़ संपूर्ण मोहनीय कर्मको - नाश किया । फिर १२ वे गुगास्थान में अंतर्मुहूर्त्त ठहरकर ज्ञानावरणी दर्शनावरणी और अंतरायका नाश कर केवलवान प्राप्त 'किया। उस समय भगवान सर्वज्ञ वीतराग जीवनमुक्त परमात्मा हुए। अनंत ज्ञान दर्शन वीर्य और अनंतसुखके स्वामी हो गये ।
इन्द्रादि देवोंने समवशरण रचा उसमें प्रभु अंतरीक्ष सिंहा