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जैनवालबोधक
उसे अंतरायकर्म कहते हैं। इसलिये इस कर्मके पांच नाम हैं : दानांतराय लाभांतराय भोगांतराय, उपभोगांतराय वीर्यतिराय |
और
६३ । जो जीवोंको इष्टवस्तुकी प्राप्ति करावे उसे पुण्यकर्म कहते हैं ।
९४ । जो जीवोंको अनिवस्तुको प्राति करावे उसे पापकर्म कहते हैं।
१५ । जो जीवके धानादिक अनुजीवी गुणोंकां धार्ते उसे घातिया कर्म कहते हैं ।
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६। जो जीवके शानादिक अनुजीवी गुणको नयाँ से श्रघातिया कर्म कहते हैं ।
१७। जो जीवके धनुजीवी गुगांको पूरे तौरले बाते उसकी सर्वघातिया कर्म कहते हैं |
= जिसका फल जीवने हो उसे जीवत्रिपाकी व जिसका
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फल पुद्गलमें { शरीरमें } हो उसे पुद्गलत्रिपाकी कर्म कहते हैं. २६ | जिसके फल से जीव संसार के उसे नवविपाकी कर्म कहते हैं ।
१०० : जिसके फलसे विग्रह गतिने जीवका आकार पहिला सा बना रहे उसे क्षेत्रविपाकी कर्म कहते हैं
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२०१ | एक शरीरको छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करने के लिये जीवके जानेको विग्रहगति कहते हैं ।
१०२ । चातियाकर्म सैंतालीस है। ज्ञानावरण ५. दर्शनावरण ६६ मोहनीय २८, और अंतराय ५=४७ |